Wednesday, May 2, 2012

ब्रह्मांडीय रहस्यों के उद्घाटन की वेला

ब्रह्माण्ड रहस्यों एवं रोमांच का आगार है। इसका एक रहस्य अनावृत होता है तो और अनेक रहस्य अनावरण की प्रतीक्षा में रहते हैं। यह तो रहस्यों का पिटारा है। इसके समस्त रहस्यों का ज्ञान केवल परमात्मा को होता है। परमात्मा ही है, जो ब्रह्माण्ड के सारे भेदों को जानता है की कब और कैसे इसका विस्तार होगा और कब यह विलीन हो जायेगा। ऋषियों अपनी सूक्ष्म एवं दिव्यदृष्टि से इसका भेद पाने का प्रयास किया है। वैदिक ऋचाओं में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी तमाम जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। ऋषियों ने इसे अनुभव किया और अभिव्यक्त किया है। वैज्ञानिकों ने इसका अनुमान किया और इसके आधार पर सिद्धांत रचे एवं मॉडल बनाये, जिसके परिणामस्वरुप आज हम अंतरग्रही यात्रा का सपना देखने लगे हैं।

इस सृष्टि का सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य है - दिक् (स्पेस) एवं काल (टाइम)। दिक् अर्थात स्थान, जहाँ पर सृष्टि की विकास यात्रा घटित होती है और काल अर्थात समय, जिसके साथ यह घटनाचक्र परिचालित एवं संचालित होता है। इस सन्दर्भ में महँ वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने एक परिकल्पना की, जिस पर उन्होंने प्रयोग करके प्राप्त परिणाम के आधार पर सिद्धांत दिया की समय सापेक्ष होता है, अंतिम सत्य नहीं होता है। सापेक्ष का तात्पर्य है - घटनाओं एवं परिस्थितियों के अनुरूप इसकी चाल में परिवर्तन होने का एहसास होना। इस सिद्धांत के आधार पर देखें तो इस सृष्टि में इस लोक से उस लोक तक काल परिवर्तित होने लगता है। जैसे एक पहिया घूमता है तो धुरी के पास स्थित वस्तुएँ अपने स्थान पर कम समय में पहुँच जाती हैं, जबकि दूर की वस्तुओं को अधिक समय लगता है। यह काल का सापेक्ष होना है।

इस सृष्टि में सात लोक एवं चौदह भुवन का वर्णन आता है। सात लोकों में धरती भी एक लोक है और इस धरती के काल की गणना अपने ढंग से होती है। काल खंडित नहीं है, परन्तु सुविधा के अनुरूप इसे दिन, सप्ताह, महीना, वर्ष, प्रकाशवर्ष आदि में विभाजित किया गया है। अपनी धरती का केंद्र है सूर्य अर्थात जब धरती सूर्य की एक परिक्रमा कर लेती है तो उसे एक वर्ष माना जाता है, जो की ३६५ दिन के बराबर होता है, परन्तु जब वह अपनी ही धुरी पर एक बार घूम लेती है तो उसे चौबीस घंटे अर्थात एक दिन एवं एक रात माना जाता है। यह समय अपनी धरती के लिए है। इस सौरमंडल में नौ ग्रह आते हैं। सूर्य के सबसे पास वाले ग्रह के एक वर्ष तथा सूर्य के सबसे दूर स्थित ग्रह के एक वर्ष में अंतर होता है। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि सूर्य की एक परिक्रमा लगाने में समय का अंतर आ जाता है।

समय तो अपने प्रवाह में गतिमान है, परन्तु अलग-अलग स्थान पर इसकी गणना अलग-अलग हो जाती है। इसी को आइन्स्टीन ने सापेक्ष कहा है। अगर हम इस सिद्धांत की बात करें तो विभिन्न लोकों में भी समय का अंतर आ जाता है, जिसे संवत्सर, कल्प आदि के रूप में जाना जाता है। मान्यता है की सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक दिन ब्रह्माण्ड का उदयकाल होता है; अर्थात जब ब्रह्मा का दिन होता है तो ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आता है, विस्तार पाता है, परन्तु जब रात्रि होती है तो वह ब्रह्माण्ड अपने मूल रूप में, जहाँ से वह उद्भूत हुआ था, वहीँ समां जाता है। वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड के उदय को बिग बैंग सिद्धांत तथा प्रलय को बिग क्रंच सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित करते हैं।

बिग बैंग का मतलब है की एक महाविस्फोट, जहाँ से ब्रह्माण्ड जन्म लेता है एवं विस्तार पाता है। स्पेस एवं टाइम का उद्भव भी यहीं से होता है। वैज्ञानिकों का यह माडल बड़ा रोचक एवं रोमांचक है, परन्तु इससे कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं, जैसे इस घटना को सबसे पहले किसने देखा और यह कैसे प्रारंभ हुई? इसकी सञ्चालन शक्ति किसके हाथों में थी? वैज्ञानिक मौन हो जाते हैं इन प्रश्नों का जवाब देने में, परन्तु ऋग्वैदिक ऋचाएं कहती हैं कि इश्वर उनका प्रथम द्रष्टा है और सी की प्रेरणा से ये घटनाएँ जन्म लेती हैं। ऐसे ही अनेक प्रश्न बिग क्रंच (प्रलय) में खड़े होते हैं, पर मूल बात है कि क्या इस सृष्टि में एक ही ब्रह्माण्ड है या अनेकों -असंख्य ब्रह्माण्ड हैं? ऋषि कहते हैं कि इस सृष्टि में असंख्य ब्रह्माण्ड हैं।

ऋषि जब समाधि मैं पहुँचते हैं या समाधि के पार पहुँचते हैं तो उन्हें इन ब्रह्मांडीय रहस्यों का ज्ञान होता है। स्वामी विवेकानंद जन्म से ध्यानसिद्ध योगी थे। उन्हें सहज ही प्रतिपल एक अजीबोगरीब दृश्य दिखाई पड़ता था। किसी भी पल जब वे एकाग्र हो जाते, तो उन्हें एक दिव्य प्रकाश्मंडित आग का गोला दिखाई देता था। उसके फूट जाने के बाद उससे निकलते कई गोले उसी आकार के दिखाई देते थे। फिर सारे गोले विभिन्न प्रकार के असंख्य प्रकाशपुंजों को जन्म दे कर विलीन हो जाते और यह श्रंखला अनवरत चलती रहती। स्वभाव से अति सहज स्वामी जी सोचते थे कि यह तो एक सामान्य प्रक्रिया है, जो सबको दृष्टिगोचर होती होगी। यह बात उन्होंने बचपन के साथियों को सुनाई तो सबको अचम्भा हुआ और सबने कहा की ऐसा हमें नहीं दिखाई देता।

उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस को ज्ञात था कि उनका नरेन्द्र आजन्म ध्यानयोगी है। वे कहते थे कि यह एक-एक प्रकाशपुंज, जो उठता-गिरता रहता है, वह एक-एक ब्रह्माण्ड है। मेरा नरेन्द्र बहुत दूर का है, उतना दूर का कि जहाँ पर ब्रह्मांडीय गतिविधियों की लहरें पहुँच तक नहीं पाती हैं। इस धरती पर हजारों वर्षों में नरेन्द्र जैसा कोई ऋषि आता है और जिसके आने से एवं होने मात्र से सृष्टि की गतिविधियां उसी के अनुरूप संचालित होने लगती हैं। इनका होना ही इस सृष्टि के लिए पर्याप्त होता है। स्पेस एवं टाइम तथा इससे घटित होने वाली परिस्थितियाँ इनके सोचने मात्र से संचालित होने लगती हैं। इनके पास प्रकृति स्वतः ही सारे रहस्यों को अनावृत करती चली जाती हैं।

वर्तमान सृष्टि संक्रमण की गहन वेला से गुजर रही है। ऋषियों ने इसे देवों की अंगड़ाई लेने की वेला मन है, जहाँ हर पल अद्भुत एवं आश्चर्यचकित करने वाली घटनाएं पैदा होती हैं। परम पूज्य गुरुदेव ने इसे सतयुग के आगमन का उषाकाल कहा है। इस उषाकाल में हम सबको ईश्वरोन्मुख हो जाना चाहिए। सतत सच्चिन्तन, सत्कर्म एवं सद्व्यवहार  करते रहना चाहिए। इन्ही सूत्रों में उन तमाम रहस्यों के भेद छिपे पड़े हैं, जिनके क्रियान्वयन से मनुष्य जीवन की सुन्दरता एवं उत्कृष्ट के सारे रहस्य खुलते चले जाते हैं । आचार्यश्री की जन्म शताब्दी हम सबके लिए अद्भुत सौगात लेकर आई है। जो इस अवसर का लाभ उठा लेगा, वह सौभाग्यशाली होगा। 

- अखंड ज्योति, मार्च २०११, पृष्ठ ३१ - ३२ से संकलित

Sunday, March 13, 2011

शिवलिंग का विज्ञान

शिवलिंग और नाभिकीय विज्ञान का आपस में क्या सम्बन्ध है एवं हमारे ऋषियों ने करोड़ों वर्षों पहले उसे कैसे पहचाना। जानने के लिए देखें शांतिकुंज, हरिद्वार की निम्न प्रस्तुति।

Thursday, March 27, 2008

मायामय संसार के सुलझते हुए रहस्य

अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने एक परीक्षण के लिए किसी व्यक्ति को आपरेशन टेबल पर लिटाया और उसे कुछ मिनटों के लिए सम्मोहित कर सुला दिया। जब वह सम्मोहन अवस्था में सो रहा था। तो उसके गले पर एक छुरी चुभाई गयी। उससे खून की एक बूँद छलक पडी। इसके बाद वैज्ञानिकों ने उसकी सम्मोहन निद्रा तोड़ दी और जगा दिया। यह सारा प्रयोग कुछ ही मिनटों में हो गया था और जितने समय तक वह व्यक्ति सोया वह तो कुछ ही सैकंड थे। उन कुछ ही सेकंडों में उस व्यक्ति ने एक लंबा सपना देख लिया था।


डा० रोशे ने उस स्वप्न का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इन कुछ ही सैकण्डों में उस व्यक्ति ने एक आदमी की हत्या कर दी थी। वह महानों तक लुकता-छिपता रहा था। अंततः पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया, उस पर मुकदमा चला-मुकदमे का फैसला होने में दो-ढाई साल लगे-जज ने उसे मृत्य दण्ड की सजा सुनाई और जब उसे फाँसी के तख्ते पर चढाया गया तभी उसी क्षण नींद खुल गयी।


वैज्ञानिकों का कहना था कि इस प्रयोग में वह व्यक्ति पाँच सात सैकण्ड ही सोया था और इस अवधि में उसके लिए वर्षों का घटना क्रम गुजर गया। यह प्रयोग आइंस्टीन के समय सिद्धान्त की सत्यता जाँचने के लिए किया जा रहा था। जिसके अनुसार समय का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है। वह दो घटनाओं के बीच की दूरी मात्र है - जो कुछ भी हो सकती है, परन्तु मनुष्य को अपने ज्ञान व अनुभूति के आधार पर ही लम्बी अथवा छोटी लगती है।


तो क्या समय सचमुच कुछ भी नही है? सुबह से शाम तक और शाम से सुबह तक चौबीस घण्टे होते हैं। इन चौबीस घण्टों में हम कितने ही काम करते हैं। घडी अपनी चाल से चलती है, सूर्य अपनी गति से क्षितिज के इस पार से उस पार तक पहुँचता है। सब कुछ तो स्पष्टतः प्रतीत होता है परन्तु आइंस्टीन के अनुसार यह सब एक भ्रम मात्र है। फिर तो सारा संसार ही भ्रम मात्र हो जायगा।


वस्तुतः सारा संसार ही एक भ्रम है। वेदांत दर्शन के अनुसार सारा जगत ही मायामय है। माया अर्थात जो नहीं होने पर भी होता दिखाई दे। जिसका अस्तित्व नहीं है परंतु भासित होता है। शंकराचार्य ने इस माया की परिभाषा करते हुए कहा है -
"माया यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयतो"
अर्थात - वही माया है जिससे यह सारा जगत उत्पन्न हुआ है।


आइंस्टीन से पहले, इन्द्रिय बुद्धि द्वारा होने वाले अनुभवों और प्रत्यक्ष जगत को ही सत्य समझा जाता था। इससे पूर्व के वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि आप दौड रहे हों अथवा बैठे हों, जाग रहे हों या सोये हुए हों, समय अपनी रफ्तार से बराबर आगे बढता है। परंतु आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धांत (Theory of Relativity) ने इस मान्यता को छिन्न-भिन्न कर दिया है और यह सिद्ध हो गया है कि समय कुछ घटनाओं का जोड भर है। यदि घटनायें न हों तो समय का कोई अस्तित्व नहीं होता और घटनायें भी द्रष्टा की अनुपस्थिति में अस्तित्व हीन होती हैं।


इस बात को कतिपय उदाहरणों द्वारा आसानी से समझा जा सकता है। समय को मापने का सबसे बडा माप दण्ड घडी है। घडी में सेकण्ड का काँटा १२ से चल कर १२ तक पहुँचने पर एक मिनट होता है, मिनट का काँटा इतनी दूरी तय कर लेता है तो मान लिया जाता है कि एक घण्टा हो गया और घण्टे का काँटा इतनी दूरी तय कर लेने पर आधा दिन तथा आधी रात बता देता है। अर्थात १२ से १२ तक दूसरी बार पहुँचने पर २४ घण्टे या एक दिन पूरा हुआ मान लिया जाता है। आइन्सटीन का कहना था कि घडी के काँटे का गति बढा दी जाय तो यही २४ घण्टे ३६ घण्टे में भी बदल सकते हैं और कम कर दी जाय तो २० या उससे भी कम, चाहे जितने हो सकते हैं। अर्थात यह बात बेमानी है कि दिन २४ घण्टे का होता है अथवा उससे कम ज्यादा का।


इसी अनुसार घडी का यह समय विभाजन पृथ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा पूरी कर लेने वाली घटना को आँकने के लिये किया गया। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पृथ्वी एक बार सूर्य की परिक्रमा कर लेती है तो २४ घण्टे हो जाते हैं। लेकिन चंद्रमा सूर्य की परिक्रमा करने में इससे भी अधिक समय लगाता है, मंगल उससे भी अधिक और शुक्र उससे भी अधिक। तो पृथ्वी के २४ घण्टों में चंद्रमा, मंगल या शुक्र का एक दिन नहीं होता है। वहाँ इससे अधिक समय में दिन रात होता है। अर्थात वहाँ के लिए दूसरे समय-मापदण्ड निर्धारित करने पडेंगे।


आइन्सटीन के अनुसार समय इसी प्रकार घटनाओं पर निर्भर करता है। सोये हुए व्यक्ति के लिए बाहरी जगत में भले ही पाँच मिनट का समय व्यतीत हुआ हो, परंतु वह जो स्वप्न देख रहा होता है, उसमें उन पाँच मिनटों के भीतर वर्षों की घटनायें घटित हो जाती हैं। तो उसके लिए पाँच मिनट बीत गये यह कहना सही होगा अथवा यह कहना सही होगा कि वर्षों बीत गये।


यह व्यक्ति के अपने बोध पर निर्भर करता है कि समय कितनी तेजी से अथवा धीमी गति से बीत रह है। घटनाओं के अतिरिक्त समय का अस्तित्व दृष्टा बोध पर भी आधारित है। कई बार लगता है कि समय बिताये नहीं बीतता। दूर स्थान से अपने किसी आत्मीय स्वजन का दुखद समाचार आया हो और वहाँ पहुँचना हो तो गाडी आने में दस मिनट की देरी भी घण्टों सी लगती है। क्योंकि व्यक्ति उस समय तनावग्रस्त उद्विग्न मनः स्थिति में रहता है लेकिन किसी सुखद समारोह में भाग लेते समय, विवाह-शादी के अवसर पर यह पता भी नहीं चलता कि समय कब बीत गया। उस समय व्यक्ति की बोध शक्ति, चेतना पूरी तरह तन्मय हो जाती है और समय भागता सा प्रतीत होता है।


इसी तरह, एक मच्छर का कुछ घण्टों का जीवन भी उसके अपने लिए मनुष्य की पूरी आयु ७०-८० वर्षों के बराबर होता है। इतनी अवधि में ही वह बच्चा, जवान, बूढा सब कुछ हो जाता है और हमारे अनुसार थोडे से घण्टों तथा उसके अपने अनुसार सत्तर-अस्सी वर्ष की आयु पूरी कर मर भी जाता है। इसका कारण प्रत्येक जीव-जन्तु की अलग-अलग बोध शक्ति है और उसी के अनुसार समय सिमटता या फैलता है।


घटनाओं और बोध शक्ति के अतिरिक्त सापेक्षतावाद के अनुसार समय की चाल गति पर भी निर्भर करती है। आइन्सटीन ने सन् १९०४-०५ में सापेक्षता का यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि गति का न केवल समय पर वरन जगह पर भी प्रभाव पडता है। उनके अनुसार गति जितनी बढेगी समय की चाल भी उतनी ही घटती जायेगी। उदाहरण के लिए एक अंतरिक्ष यान प्रकाश की गति से अर्थात् एक लाख छियासी हजार मील प्रति सैकण्ड की गति से चलता हो तो उसमे बैठे व्यक्ति के लिए समय की चाल एक बटा सत्तर हजार हो जायगी। अर्थात् प्रकाश की गति से चलने वाले यान में बैठ कर कोई व्यक्ति नौ प्रकाश वर्ष (नौ वर्ष में प्रकाश एक लाख छियासी हजार मील प्रति सैकण्ड के हिसाब से जितनी दूरी तय कर सकता है।) उतनी, दूर स्थित किसी तारे पर जाये और वहाँ से तुरन्त निकल पडे तो इस यात्रा में अठारह वर्ष लगेंगे। लेकिन उस व्यक्ति के लिये यह समय अठारह वर्ष का सत्तर हजारवाँ भाग अर्थात् सवा दो घण्टे ही होगा।


ऐसा भी नहीं है कि पृथ्वी पर भी सवा दो घण्टे ही बीतेंगे। पृथ्वी पर तो वही अठारह वर्ष ही व्यतीत होंगे। उस व्यक्ति के सगे सम्बन्धी भी अठारह वर्ष बूढे हो चुकेंगे। जिन बच्चों को वह १२-१३ वर्ष का छोड गया होगा वे ३०-३१ वर्ष के हो चुकेंगे। उसकी पत्नी जो उससे २ वर्ष छोटी ३५ वर्ष की रही होगी वह बूढी हो चुकेगी। किंतु वह व्यक्ति जिस वक्त और जिस स्थिति में गया होगा उसी आयु तथा उसी स्वास्थ का रहेगा। यानी उसकी आयु सवा दो घण्टे ही बीती होगी। यह भी कहा जा सकता है कि वह अपनी पत्नी से आयु में सोलह वर्ष छोटा हो जायेगा।


यह बात पढने-सुनने में अनहोनी लगती है कि कोई व्यक्ति १८ वर्ष बाहर रह कर आये और जब लौटे तो ऐसे मानो कुछ घण्टे ही बाहर रहा हो। उसके चेहरे और शकल में भी कोई परिवर्तन न आये। उसे देख कर कोई यह भी न कह पाये कि इस बीच वह १८ वर्ष और बडा हो चुका है। लेकिन आइन्सटीन ने प्रमाणों और प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया है। सापेक्षता के इस सिद्धान्त को 'क्लाक पैराडाक्स' (समय का विरोधाभास) कहा गया है।


यद्यपि अभी कोई ऐसा यान बन नहीं सका है जिसके द्वारा की गई यात्रा से इस सिद्धान्त की सच्चाई को अनुभूत किया जा सके। परन्तु समय विरोधाभास के जो समीकरण आइन्सटीन ने दिये उनके अनुसार अमेरिका के भौतिकशास्त्री जोजेफ हागले और खगोलशास्त्री रिचर्ड किटिंग ने १९७१ में दो बार प्रयोग किये। उन्होने अपने साथ चार परमाणु घडियाँ लीं। स्मरणीय है कि परमाणु सेकण्ड के खरब वें हिस्से तक का समय सही-सही बता देती है। इन घडियों को लेकर उन्होने सर्वाधिक तीव्र गति से उडने वाले यान द्वारा पृथ्वी की दो बार परिक्रमा लगायी। हाफले और कीटिंग ने भूल-चूक से बचने के लिए हर तरह की सावधानी बरती थी। प्रयोग पूरा करने के बाद उन्होने पाया कि तीव्र गति के कारण परमाणु घडियों ने अन्तर बता दिया। वैज्ञानिकों ने घोषित किया कि आइन्सटीन का क्लाक पैराडाक्स सिद्धान्त सही था।


इस सिद्धान्त के अलावा घटनाओं और बोध पर निर्भर समय गति का सिद्धान्त तो पहले ही सिद्ध हो चुका है। सापेक्षता के ये समस्त सिद्धान्त वेदान्त की मूल मान्यताओं का समर्थन करते हैं। पहले सिद्धान्त के अनुसार यह विश्व और कुछ नहीं घटनाओं का जोड मात्र है तथा घटनायें व्यक्ति की बोध शक्ति, संकल्प चेतना का ही प्रतिफल है। विराट ब्रह्म के संकल्प से, उसकी उपस्थिति मात्र से यह मायामय संसार उत्पन्न हुआ। मनुष्य यदि चाहे तो वह इस माया से मुक्त हो सकता है और सत्य का दर्शन कर सकता है; बशर्ते कि हम पहले से बनी बनायी घटनाओं को वस्तु जगत पर थोपना बन्द कर दें। तत्व दर्शियों ने इसी को साक्षी भाव की सिद्धी कह है।


अंतिम सिद्धान्त समय विरोधाभास के अनुसार मायावाद की ओर पुष्टि हो जाती है जिसमे व्यक्ति को असंग भाव से कर्म करने की प्रेरणा दी गयी है। उस स्थिति को प्राप्त हुए बिना अंतिम सत्य का पता लगाया हि नहीं जा सकता क्योंकि समय का बोध - आब्जेक्टिव टाइम (Objective Time) निरंतर भ्रमित स्थिति बनाये रखता है। जैसे पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है परन्तु दिखाई यह देता है कि सूर्य पूर्व से पश्चिम की ओर जा रहा है। चलती हुई रेलगाडी में से दूर तक देखने पर पेड, वृक्ष टीले और पृथ्वी ही दौडती दिखाई देती है। उसी प्रकार सीमाबद्ध, अस्तित्व में ये सारी भ्रान्तियाँ उत्पन्न होती हैं।


इन सब घटनाओं का साक्षी रहने वाला मायामुक्त अस्तित्व पहचाना जा सके तो वस्तु स्थिति का ज्ञान सहज ही हो सकता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि मायामुक्त हो जाने से व्यक्ति अकर्मण्य, निष्क्रिय हो कर बैठ जायगा। सत्य की प्राप्ति कभी किसी क्षेत्र में अनर्थ नहीं करती। सत्य की प्राप्ति कभी किसी क्षेत्र में अनर्थ नहीं करती। सत्य का ढोंग ही अनर्थ करता है। जब यह अनुभव हो जायगा कि वस्तुतः तो यह सभी संसार एक क्रीडांगण है जहाँ एक ही चेतन सत्ता खेल रही है। यह जगत् अभिनय मय है जहाँ प्रत्येक जीवात्मा को अपनी योग्यता प्रमाणित करने के लिए भेजा गया है तो अधिक प्रखरता से कर्म साधना हो सकेगी। प्राचीन-काल में ऋषियों ने अपनी अन्तर्दृष्टि से, साधना उपासना से इस भ्रम जाल, मायामय संसार के सत्य को पहचाना था। विज्ञान भी अब उसी बिन्दु की ओर पहुँच रहा है। इसमें कोई संशय नहीं है कि सत्य को प्राप्त करने के लिए सच्ची लगन और जिज्ञासा से किसी भी क्षेत्र में प्रयास किया जाय अन्ततः पहुँचना एक ही बिन्दु पर होता है।


(अखण्ड ज्योति, जनवरी १९७९)