Wednesday, May 2, 2012

ब्रह्मांडीय रहस्यों के उद्घाटन की वेला

ब्रह्माण्ड रहस्यों एवं रोमांच का आगार है। इसका एक रहस्य अनावृत होता है तो और अनेक रहस्य अनावरण की प्रतीक्षा में रहते हैं। यह तो रहस्यों का पिटारा है। इसके समस्त रहस्यों का ज्ञान केवल परमात्मा को होता है। परमात्मा ही है, जो ब्रह्माण्ड के सारे भेदों को जानता है की कब और कैसे इसका विस्तार होगा और कब यह विलीन हो जायेगा। ऋषियों अपनी सूक्ष्म एवं दिव्यदृष्टि से इसका भेद पाने का प्रयास किया है। वैदिक ऋचाओं में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी तमाम जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। ऋषियों ने इसे अनुभव किया और अभिव्यक्त किया है। वैज्ञानिकों ने इसका अनुमान किया और इसके आधार पर सिद्धांत रचे एवं मॉडल बनाये, जिसके परिणामस्वरुप आज हम अंतरग्रही यात्रा का सपना देखने लगे हैं।

इस सृष्टि का सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य है - दिक् (स्पेस) एवं काल (टाइम)। दिक् अर्थात स्थान, जहाँ पर सृष्टि की विकास यात्रा घटित होती है और काल अर्थात समय, जिसके साथ यह घटनाचक्र परिचालित एवं संचालित होता है। इस सन्दर्भ में महँ वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने एक परिकल्पना की, जिस पर उन्होंने प्रयोग करके प्राप्त परिणाम के आधार पर सिद्धांत दिया की समय सापेक्ष होता है, अंतिम सत्य नहीं होता है। सापेक्ष का तात्पर्य है - घटनाओं एवं परिस्थितियों के अनुरूप इसकी चाल में परिवर्तन होने का एहसास होना। इस सिद्धांत के आधार पर देखें तो इस सृष्टि में इस लोक से उस लोक तक काल परिवर्तित होने लगता है। जैसे एक पहिया घूमता है तो धुरी के पास स्थित वस्तुएँ अपने स्थान पर कम समय में पहुँच जाती हैं, जबकि दूर की वस्तुओं को अधिक समय लगता है। यह काल का सापेक्ष होना है।

इस सृष्टि में सात लोक एवं चौदह भुवन का वर्णन आता है। सात लोकों में धरती भी एक लोक है और इस धरती के काल की गणना अपने ढंग से होती है। काल खंडित नहीं है, परन्तु सुविधा के अनुरूप इसे दिन, सप्ताह, महीना, वर्ष, प्रकाशवर्ष आदि में विभाजित किया गया है। अपनी धरती का केंद्र है सूर्य अर्थात जब धरती सूर्य की एक परिक्रमा कर लेती है तो उसे एक वर्ष माना जाता है, जो की ३६५ दिन के बराबर होता है, परन्तु जब वह अपनी ही धुरी पर एक बार घूम लेती है तो उसे चौबीस घंटे अर्थात एक दिन एवं एक रात माना जाता है। यह समय अपनी धरती के लिए है। इस सौरमंडल में नौ ग्रह आते हैं। सूर्य के सबसे पास वाले ग्रह के एक वर्ष तथा सूर्य के सबसे दूर स्थित ग्रह के एक वर्ष में अंतर होता है। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि सूर्य की एक परिक्रमा लगाने में समय का अंतर आ जाता है।

समय तो अपने प्रवाह में गतिमान है, परन्तु अलग-अलग स्थान पर इसकी गणना अलग-अलग हो जाती है। इसी को आइन्स्टीन ने सापेक्ष कहा है। अगर हम इस सिद्धांत की बात करें तो विभिन्न लोकों में भी समय का अंतर आ जाता है, जिसे संवत्सर, कल्प आदि के रूप में जाना जाता है। मान्यता है की सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक दिन ब्रह्माण्ड का उदयकाल होता है; अर्थात जब ब्रह्मा का दिन होता है तो ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आता है, विस्तार पाता है, परन्तु जब रात्रि होती है तो वह ब्रह्माण्ड अपने मूल रूप में, जहाँ से वह उद्भूत हुआ था, वहीँ समां जाता है। वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड के उदय को बिग बैंग सिद्धांत तथा प्रलय को बिग क्रंच सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित करते हैं।

बिग बैंग का मतलब है की एक महाविस्फोट, जहाँ से ब्रह्माण्ड जन्म लेता है एवं विस्तार पाता है। स्पेस एवं टाइम का उद्भव भी यहीं से होता है। वैज्ञानिकों का यह माडल बड़ा रोचक एवं रोमांचक है, परन्तु इससे कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं, जैसे इस घटना को सबसे पहले किसने देखा और यह कैसे प्रारंभ हुई? इसकी सञ्चालन शक्ति किसके हाथों में थी? वैज्ञानिक मौन हो जाते हैं इन प्रश्नों का जवाब देने में, परन्तु ऋग्वैदिक ऋचाएं कहती हैं कि इश्वर उनका प्रथम द्रष्टा है और सी की प्रेरणा से ये घटनाएँ जन्म लेती हैं। ऐसे ही अनेक प्रश्न बिग क्रंच (प्रलय) में खड़े होते हैं, पर मूल बात है कि क्या इस सृष्टि में एक ही ब्रह्माण्ड है या अनेकों -असंख्य ब्रह्माण्ड हैं? ऋषि कहते हैं कि इस सृष्टि में असंख्य ब्रह्माण्ड हैं।

ऋषि जब समाधि मैं पहुँचते हैं या समाधि के पार पहुँचते हैं तो उन्हें इन ब्रह्मांडीय रहस्यों का ज्ञान होता है। स्वामी विवेकानंद जन्म से ध्यानसिद्ध योगी थे। उन्हें सहज ही प्रतिपल एक अजीबोगरीब दृश्य दिखाई पड़ता था। किसी भी पल जब वे एकाग्र हो जाते, तो उन्हें एक दिव्य प्रकाश्मंडित आग का गोला दिखाई देता था। उसके फूट जाने के बाद उससे निकलते कई गोले उसी आकार के दिखाई देते थे। फिर सारे गोले विभिन्न प्रकार के असंख्य प्रकाशपुंजों को जन्म दे कर विलीन हो जाते और यह श्रंखला अनवरत चलती रहती। स्वभाव से अति सहज स्वामी जी सोचते थे कि यह तो एक सामान्य प्रक्रिया है, जो सबको दृष्टिगोचर होती होगी। यह बात उन्होंने बचपन के साथियों को सुनाई तो सबको अचम्भा हुआ और सबने कहा की ऐसा हमें नहीं दिखाई देता।

उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस को ज्ञात था कि उनका नरेन्द्र आजन्म ध्यानयोगी है। वे कहते थे कि यह एक-एक प्रकाशपुंज, जो उठता-गिरता रहता है, वह एक-एक ब्रह्माण्ड है। मेरा नरेन्द्र बहुत दूर का है, उतना दूर का कि जहाँ पर ब्रह्मांडीय गतिविधियों की लहरें पहुँच तक नहीं पाती हैं। इस धरती पर हजारों वर्षों में नरेन्द्र जैसा कोई ऋषि आता है और जिसके आने से एवं होने मात्र से सृष्टि की गतिविधियां उसी के अनुरूप संचालित होने लगती हैं। इनका होना ही इस सृष्टि के लिए पर्याप्त होता है। स्पेस एवं टाइम तथा इससे घटित होने वाली परिस्थितियाँ इनके सोचने मात्र से संचालित होने लगती हैं। इनके पास प्रकृति स्वतः ही सारे रहस्यों को अनावृत करती चली जाती हैं।

वर्तमान सृष्टि संक्रमण की गहन वेला से गुजर रही है। ऋषियों ने इसे देवों की अंगड़ाई लेने की वेला मन है, जहाँ हर पल अद्भुत एवं आश्चर्यचकित करने वाली घटनाएं पैदा होती हैं। परम पूज्य गुरुदेव ने इसे सतयुग के आगमन का उषाकाल कहा है। इस उषाकाल में हम सबको ईश्वरोन्मुख हो जाना चाहिए। सतत सच्चिन्तन, सत्कर्म एवं सद्व्यवहार  करते रहना चाहिए। इन्ही सूत्रों में उन तमाम रहस्यों के भेद छिपे पड़े हैं, जिनके क्रियान्वयन से मनुष्य जीवन की सुन्दरता एवं उत्कृष्ट के सारे रहस्य खुलते चले जाते हैं । आचार्यश्री की जन्म शताब्दी हम सबके लिए अद्भुत सौगात लेकर आई है। जो इस अवसर का लाभ उठा लेगा, वह सौभाग्यशाली होगा। 

- अखंड ज्योति, मार्च २०११, पृष्ठ ३१ - ३२ से संकलित

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